लोगों की राय

गीता प्रेस, गोरखपुर >> सत्संग-माला तथा ज्ञान-मणिमाला

सत्संग-माला तथा ज्ञान-मणिमाला

मगनलाल हरिभाई

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :126
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1025
आईएसबीएन :00000

Like this Hindi book 2 पाठकों को प्रिय

227 पाठक हैं

प्रस्तुत पुस्तक में सत्संग-माला तथा ज्ञान-मणिमाला का बहुत ही मार्मिक चित्रण किया गया है।

Satsang Mala Tatha Gyan Manimala -A Hindi Book by Maganlal Haribhai - सत्संग-माला तथा ज्ञान-मणिमाला - मगनलाल हरिभाई

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

निवेदन

इसके मूल लेखक हैं श्रीमगनलाल हरिभाई व्यास। ये गुजरात के वसो नामक ग्राम के निवासी थे। गत संवत् 2005 आषाढ़ कृष्ण सप्तमी सोमवार को संध्या के समय पद्मासन लगाकर प्रणवका जप करते-करते ब्रह्मरन्ध्र के द्वारा इन्होंने ऊर्ध्वगति प्राप्त की थी। ये बड़े ही भक्ति, सूक्ष्म विचारक और साधनसम्पन्न सत्पुरुष थे।

इनके ये विचार बहुत ही अच्छे लगे थे, इससे इनका हिन्दी में अनुवाद करके ‘कल्याण’ में क्रमशः प्रकाशित कर दिया था। ‘कल्याण’ के पाठकों ने इनको बहुत पसन्द किया और पुस्तक रूप में प्रकाशित करने के लिए बार-बार अनुरोध किया। तदनुसार इन्हें पुस्तकरूप में प्रकाशित किया जा रहा है। ये विचार बहुत ही सुन्दर, उपादेय और लाभकारक हैं। आशा है, पाठकगण इस पुस्तक से लाभ उठायेंगे।

हनुमान प्रसाद पोद्दार

सतसंग माला

1-सत्य और प्रिय वाणी बोलनी चाहिये, असत्य और प्रिय नहीं,। इसी प्रकार सत्य और अप्रिय भी नहीं बोलना चाहिये। जीव अनेक जन्मों संस्कार के कारण अप्रिय और असत्य बोलता है। वे संस्कार प्रयत्न से हट सकते है, अतः सत्य और अप्रिय बोलने का अभ्यास करना चाहिए। चिन्ता रखकर अभ्यास करना और सत्य एवं प्रिय बोलने में कोई हानि हो जाय तो उसे सह लेना चाहिये। सत्य और प्रिय बोलने की स्थित न हो तो मौन रहना चाहिए और उस मौन में रहने में यदि हानि हो तो उसे सह लेना चाहिये; परंतु सत्य और प्रिय बोलने के नियम का त्याग कभी नहीं करना चाहिए।

जो इस (सत्य और प्रिय बोलने के) नियमका दृढ़ता से पालन करेगा, उसे सुख, शान्ति, सम्पत्ति प्राप्त होगी, यश मिलेगा और निष्काम भाव से पालन करनेपर मुक्ति मिलेगी। जबतक जीवन रहे, तबतक इस नियमका पालन करना चाहिये। इस नियम में बहुत ही बल है। असत्य बोलनेवाले प्रिय बोलते हैं, इसलिए व्यवहार में प्रिय बोलनेवाले प्रायः कपटी होते हैं, वे स्वार्थसाधन के लिये कपट से प्रिय वाणी बोलते हैं, अतः व्यवहार में प्रिय बोलनेवालों का विश्वास नहीं करना चाहिए। सत्य बोलनेवाले कटु वाणी बोलते हैं और वह कटु वाणी सत्य के तपको खा जाती है। अतएव साधकको सत्य और प्रिय बोलने का सतत प्रयत्न करना चाहिये, इससे भगवान् प्रसन्न होते हैं।


प्रथम पृष्ठ

लोगों की राय

No reviews for this book